Friday, April 23, 2010

आज की पर्यावरणीय वास्तविकता

आज की पर्यावरणीय वास्तविकता

डा. निलेश कमलकिशोर हेडा, संवर्धन संस्था, कारंजा लाड

आज की पर्यावरणीय वास्तविकता भीषण है. महत्वपूर्ण बात ये है कि इस भीषणता की कल्पना तथा पर्यावरणीय विनाश से उप्तन्न खतरों को भापने की समझ हमारे नेतागण, अध्ययनकर्ता तथा आम आदमी के बीच दिखाई नही देती.

इस लेख की शुरुआत करने से पहले पर्यावरण के संबंध में कुछ मूलभूत बातों को हमे समझना चाहिये. एक दूरें से जुड़े हजारों घटकों की सुचारु व्यवस्था का नाम है पर्यावरण. जैविक तथा अजैविक घटक एकत्र होकर प्रकृति का सुंदर जाल बना है. इस तरह के हजारों घटकों के सहसंबंध हजारो साल की संभाव्यता (Probability) तथा जिन बातों की आवश्यकता नही ऐसी बातों को अलविदा कह कर तैयार हुयी है.

हम अगर जीव की उत्पत्ति तथा विकास का बारीकी से जायजा लेते है तो दो बातें स्पष्ट हो जाती है, जीवन की शुरुवात से अब तक जीवन ज्यादा से ज्यादा क्लिष्ट (Complex) होता गया है तथा जीवन में विविधता (Diversity) धीरे धीरे बढ़ती गई है. पृथ्वी पर जीवन की शुरुत ३.५ अरब साल पहले हुयी. शुरुती जीव बिल्कुल सरल सी रचना के थे लेकिन बाद मे जैसे जैसे समय बीतता गया जीवन क्लिष्ट होता गया. एकपेशीय अमीबा जैसे सरल से दिखने वाले शुरुआती जीवों ने विकास की प्रक्रिया मे अनेकानेक रुप धरे. शुरुती जीव एक जैसे दिखने वाले थे लेकिन आज हमे विभिन्न आकार, प्रकार के जीव देखने को मिलते है, जिसे हम जैवविविधता (Biodiversity) के नाम से जानते है. ऐसा किस कारण हुआ होगा? इतने विचित्र जीव निर्माण करणे की प्रकृति को क्या आवश्यकता थी? इसका तर्क संगत उत्तर पहली बार एक व्यक्ति ने दिया; चार्लस डार्विजिसका नाम था. डार्विन ने कहां की, प्राकृतिक चुनाव (Natural Selection) एक ऐसी प्रक्रिया है जीसके द्वारा जीव विकसीत होते है. प्रकृति चुनाव करती है. जो ज्यादा शाश्वत है उसको चुनती है. जीने के लिये लगने वाले संसाधन सिमीत होते है लेकिन जीव काफी ज्यादा मात्रा मे होते है. इस वजह से संसाधनों के लिये दो जीवों मे प्रतिस्पर्धा (Competition) उत्पन्न होती है. इस तरह की प्रतिस्पर्धा मे दो विकल्प हर एक जीव के पास होते है, या तो खत्म हो जाओ या अपने मार्ग अलग कर लो. जीवन कभी भी नष्ट होना नही चाहता. कैसे भी करो लेकिन जीवंत रहो ये प्रकृति का धर्म है अत: हर जीव अन्य जीवों से अपने मार्ग अलग करने की जद्दोजह में लगा होता है. अपने मार्ग अन्य जीवों से अलग करने का अर्थ होता है विभीन्न प्रकार के संसाधनों का उपयोग करना. उदाहरणार्थ मछलियां पाणी मे रहेगी, शेर मांस खायेंगे आदि इस तरह के विभाजन से प्रतिस्पर्धा मे कमी आती है तथा विभीन्न प्रकारके जीव निर्मित होते है (अगर सारे जीव घास खाने लगे तो सारा जीवन ही डांवाडोल हो जायेगा). संक्षेप मे, पिछले ३.५ अरब सालों मे विभिन्न प्रकार के जीवों की एक महान श्रृंखला का निर्माण हुआ. अध्ययनकर्ता मानते है की आज दुनिया मे लगभग ८० लाख से १२० लाख के आसपास विभिन्न प्रकार की जैव प्रजातियां (Species) होनी चाहिये. इस तरह करोडों सालों मे निर्मित हुई जीव सृष्टी आज केवल एक जीव के कारण; बुद्धीमान मानव जिसका नाम है; नष्ट होने की कगार पर है और यहीं हमारी आज की पहली पर्यावरणीय कटु वास्तविकता है. आज दुनिया भर मे हर साल १४०,००० प्रजाती हर साल खत्म हो रही है. उदाहर के लिये चीता भारतीय मानसपटल से पूरी तरह से लुप्त हो चुका है, वही बात किसी समय बहुतायत मे पाये जाने वाले गिदड (Vulture) के बारे मे भी है, बाघ, शेर, गेंडे चिंताजनक मात्रा मे घट गये है आदि. स्तनपाई जीव, सरीसृप, पक्षी तथा मछलियों की कई प्रजातियां नष्ट हो चुकी है. वानस्पतीक जगत भी खतरे मे है. एक अमुक पक्षी अगर नष्ट हो जाता है तो क्या बिगड़ेगा ऐसी सोच भी कई लोग रखते है, लेकिन हमे समझना चाहिये की प्रकृति का संतुलन ऐसी ही अनेक प्रजातियों से बनता है. जब कोई प्रजाती खत्म होती है तो उसके दुरागामी परिणाम सारे पर्यावरण को बुरी तरह से प्रभावित करते है.

हमारे समय की दूसरी पर्यावरणीय वास्तविकता है जीवों के आवास का नष्ट होना. हर एक जीव का एक रहने का निवास स्थान होता है जिसे पारिस्थितिकी मे अधिवास या आवास (Habitat) कहा जाता है. अगर ऐसे आवास स्थान नष्ट होते है तो जीव भी नही बचेंगे. आदमी द्वारा कृषि के शोध से अब तक ( पिछले दस हजार सालो मे) ५० प्रतित प्राकृतिक भूभागों में परिवर्तन किये गये है. कृषि के लिये जंगलों का सफाया करना, नदीयां, तालाब, सागरों को प्रदुष से सराबोर करना, विभिन्न प्रकार के तथाकथी विकास के लिये, निज पदार्थों के दोहन के लिये हजारो हेक्टेयर प्राकृतिक भूदृष्यों मेंमूल परिवर्तन कर दिये गये है. नजदीकी उदाहरण के तौर पर देखें तो विदर्भ मे हजारों सालों से छोटे छोटे तालाबों की सुंदर सी सामाजिक तथा प्राकृतिक रचना थी. ये तालाब हर एक गांव तथा शहर के लिये अमृत के घट थे. आज अतिक्रम से, प्रदूषन से, तालाब मे निरंतर मिट्टी एकत्रित होने से, जलपर्णी तथा बेशरम जैसे पौधों की बहुतायत से सारे तालाब नष्ट होने की कगार पर है.

हमारे समय की तीसरी पर्यावरणीय वास्तविकता है विश्व का लगातार बढता तापमान (Global Warming) तथा उस वजह से होने वाला जलवायु परिवर्तन (Climatic Changes). जलवायु परिवर्तन का महत्वपूर्ण कारण है पृथ्वी के औसतन तापमान मे वृद्धि होना. बीसवीं सदी के मध्य से ही पृथ्वी के औसतन तापमान में ०.७५ डिग्री सेंटीग्रेड से वृद्धि हुई है. सूर्य से हमारी पृथ्वी को उर्जा प्राप्त होती है. सूर्य से पृथ्वी की ओर आने वाली कुछ किरणे पृथ्वी आत्मसात करती है तथा कुछ किरणे पृथ्वी तथा सागर के पृष्ठभाग से टकराकर वापस अंतरिक्ष मे चली जाती है जिससे पृथ्वी ज्यादा गर्म नही हो पाती. पिछले ३०० सालों मे हमारी र्जा की जरुरतें हजा गुना बढ़ गई है. ऊर्जा निर्माण की प्रक्रिया मे कार्बन डाय आक्साइड वातावरण मे निष्कासित होता है. साथ ही मिथेन भी अनेक प्रक्रियाओं द्वारा निष्कासित होता है. इन गैसों को ’ग्रीन हाऊस गैस’ (Green House Gas) कहते है. पानी की भाप तथा ओजोन भी इसमें समाहित होते है. ये ग्रीन हाउस गैसें पृथ्वी से बाहर जाती सूर्य की किरणों को सोख लेते है तथा उष्ण लहरों के रुप में पुन: पृथ्वी को वापस कर देती है, जिससे पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ जाता है. इस बढ़ते तपमान की वजह से ध्रुवों में संचीत बर्फ पिघल रही है, सागर का स्तर बढता जा रहा है तथा मांसुन चक्र मे परिवर्तन आ रहा है. इससे कहीं सूखा तो कहीं बहुत ज्यादा बारीश ऐसी परिस्थिति निर्मित हो रही है. पुणे मे स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट आफ ट्रापीकल मेटेरोलाजी के अध्ययन कर्ताओं ने सायंस नाम के जर्नल में २००६ मे प्रकाशित शोध निबंध के अनुसार भारत के शुष्क प्रदेशों मेंतिवृष्टी का प्रमाण गत ५० सालों मे १० प्रतीषत से बढ़ा है. बंगलोर स्थित द सेंटर फार मॅथेमेटीकल माडलिंग तथा कंप्यूटर सिमुलेशन नामक संस्था ने किये शोध से स्पष्ट होता है कि भारत के शुष्क विभाग जैसे उत्तर मध्य प्रदेश, क्षिण उड़िसा में अतीवृष्टी की मात्रा बढ़ गई है. उसी समय भारत के कई भागों में सूखे की मात्रा भी बढ़ती जा रही है. २६ जुलाई २००५ को मुंबई में २४ घंटो मे आयी ९४४ मि.मि. रिकार्डतोड बारीश इस परिवर्तन की शुरुवात थी (श्चिम विदर्भ मे पूरे साल मे इतनी वर्षा नही होती ये उल्लेखनीय है). ये परिवर्तन पृथ्वी के तापमान में हो रही वृद्धी की वजह से हो रहे है.ढ़ते तापमान की वजह से सागर की सतह ज्यादा गर्म होती है परिणामत: ज्यादा बाष्प निर्मित होती है. इस तरह तैयार हुयी बाष्प किसी एक जगह पर अचानक ही बरस पड़ती है और कही सुखा तो कही अतीवृष्टी की परिस्थिती निर्मित होती है.

हमारी चौथी तथा अंतिम पर्यावरणीय वास्तविकता है परदेसी प्रजातीयों की मात्रा बढ़ना. बेशरम, गाजर घास, जैसी खरपतवार, तिलापिया, आफ्रिकन मागुर जैसी मछलियां आदि की तादाद भारतीय वातावरण मे बढ़ गई है. ये प्रजातियां मूल रुप से भारतीय नहीं है. ये प्रजातिया यंहा की मूल प्रजातियों से प्रतिस्पर्धा करती है तथा यहां की प्रजातियों को नष्ट कर देती है... २००३ में विदर्भ की केवल एक नदी में पहली बार मैने खुद तिलापिया नाम की दक्षिणफ्रीका की नदीयों मे पायी जानेवाली मछली को प्रथमत: देखा था. आज विदर्भ की हर नदी तथा तालाब में उसकी मात्रा बढती जा रही है और मछलियों की स्थानीय प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर पहुचुकी है. इसका कारण ये है की तिलापिया किसी भी परिस्थिती में अपने को ढाल लेती है, उसपर रोग नही आते तथा अन्य मछलियों के अंडे को वो खा लेती है.

अब हम इन सारे नकारात्मक परिवर्तनों को रोकने की दिशा मे क्या कर सकते है इसका विचार करेंगे. इस संदर्भ मे महात्मा गांधी का एक वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण है, गांधीजी कहा करते थे कि, यह पृथ्वी हम सब की जरुरतों को पूरा करने का सामर्थ्य रखती है लेकिन हमारे लोभ को पूरा करने की क्षमता इसमे नही है.’ पिछले ३०० सालों मे बढ़ी आबादी की जरुरतों को पूरा करने के लिये हमने प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया है, जिससे संसाधनों मे कमी तो आयी है साथ ही प्रदूषण के स्वरुप में वातावरण में जहर भी घोला गया है. अत: हमारी जरुरतों को सीमित करना, उर्जा, जल जैसे संसाधनों का उपयोग जिम्मेदारी से करना अत्यावश्यक है.

प्राचीन काल के भारत में प्रकृति के साथ समायोजन कर जीने का ढंग था. दियों को माता, पहाड़ों तथा जंगलो को पिता का दर्जा दिया जाता था. भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न जन-जातीयों द्वारा अनेकानेक प्रजातीयों को श्रद्धा के अंतर्गत संरक्षित किया जाता था. वहीं बात प्राकृतिक आवासों के संदर्भ में भी सच है. देवराई (Sacred Grove. भगवान के नाम रखा गया जंगल), पवित्र झरने, कुंडो (Sacred Ponds) के रुप मे अनेकानेक प्राकृतिक आवासों को जन सामान्य ने धार्मिक प्रथाओं के तहत संरक्षित किया था. ढ़ते बाजारवाद तथा पश्चिमी सभ्यता के बढ़ते चलन ने आम भारतीयों के मन मे समाहित प्रकृति प्रेम को धीरेधीरे नष्ट कर दिया है. हमारे वर्तमान, तथाकथीत विकास की संकल्पना की भी समिक्षा करने की आवश्यकता है. हमारा विकास का माडल क्या कहता है? ज्यादा से ज्यादा कारें, ज्यादा से ज्यादा कारखाने, रासायनिक खेती से बढता उत्पाद ही विकास है.से विकास का अमरीकी उपभोक्तावाद पर आधारित माडल ही प्रकृति को जबरदस्त नुकसान पहुंचा रहा है. ऐसे मे नई पीढ़ी के मन मे प्रकृति के संबंध मे प्रेम को बढावा देना तथा वास्तविक विकास क्या है इस बारे मे सकारात्मक नजरीया बनाना एक महत्वपूर्ण चुनौती है. मेरे देखे वास्तविक विकास, शाश्वत विकास (Sustainable Development) वो होता है जिमें प्राकृतीक संसाधनों की शाश्वतता अबाधीत रहती है और लंबे समय तक सभी को समान रुप मे संसाधन मुहैया होते रहते है.

प्रकृति के संबंध मे अध्ययन के संबंध में भी हम काफी पिछड़े है. जानकारी के अभाव मे प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन सरकारी तबकों मे किया जा रहा है. दिल्ली के समीप स्थित सरिस्का बाघ परियोजना का हम उदाहरण लें तो, सालों साल वन विभाग बाघों के झूठे आकडें देता रहा था लेकिन असल मे सरिस्का के सारे बाघ शिकारियों की भेंट चढ चुके थे. अत: प्राकृतिक घटकों की जानकारी को बढाना अत्यावश्यक है. ऐसी जानकारी प्रकृति के सानिध्य में रह रहे आदिवासी, वैध्य, मछुआरे, पशुपालकों के पास बहुतायत में होती है. उस ज्ञान को सहेजकर उसके उपयोग को बढावा देना अत्यावश्यक है.

ऐसे दौर में प्रकृति के बारे में, उसमें हो रहे नकारात्मक परिवर्तनों के बारे में नई पिढ़ी में जागृती उत्पन्न करना, रोजगार गारंटी योजना (NREGA) जैसे माध्यम से नष्ट हुये संसाधनों को पुनरुज्जीवित करना, वृक्षारोपण, रुफ टाप हारवेस्टिं(Roof Top Harvesting) जैसे आसान तरीके से विनाश की ओर अग्रसर प्रकृति को बचाना संभव है.

केवल सरकारी विभाग जैसे वन विभाग, सिंचाई विभाग, मछलिपालन विभाग ही प्रकृति का संवर्धन करेंगे सा मानना गलत है. जब तक प्रकृति को बचाने का आंदोलन आम आदमी का जन-आंदोलन नही बनता तब तक प्रकृति को बचाना असंभव है.

@ डा. निलेश हेडा,

संवर्धन, एपीएमसी के पास, वाशिम रोड, कारंजा (लाड), जिला वाशिम, ४४४१०५. महाराष्ट्र

( ९७६५२७०६६६.

(लेखक पर्यावरणविद् है तथा लंन स्थित रुफोर्ड मारिस फाउंडेशन से सहायता प्राप्त नदी अध्ययन तथा संवर्धन परियोजना के प्रबंधक है.)

1 comment:

  1. wahhh umda lekh ...
    केवल सरकारी विभाग जैसे वन विभाग, सिंचाई विभाग, मछलिपालन विभाग ही प्रकृति का संवर्धन करेंगे ऐसा मानना गलत है. जब तक प्रकृति को बचाने का आंदोलन आम आदमी का जन-आंदोलन नही बनता तब तक प्रकृति को बचाना असंभव है

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